04 प्रतिवर्तता (Reflexivity) का सफर
परिचय:
👋 आज हम समाजशास्त्र में प्रतिवर्तता (Reflexivity) के दिलचस्प अवधारणा पर चर्चा करेंगे। यह एक तरह का आईना 🪞 है जिसमें शोधकर्ता खुद अपने काम करने के तरीके को देखता है।
मुख्य स्रोत: इकाई चार - प्रतिवर्तता
मुख्य विचारक: एल्विन गोल्डनर, हैरोल्ड गारफिंकल, और पियरे बोर्दियू के नजरिए से इसे समझने की कोशिश करेंगे।
उद्देश्य: प्रतिवर्तता क्या है और सोशल रिसर्च 🔬 में इसका क्या मतलब है, यह समझना।
महत्व:
- यह न सिर्फ आजकल की सामाजिक जिंदगी को समझने में मदद करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि हम (समाज विज्ञानी 🧑🔬) कैसे समाज को समझने की कोशिश करते हैं।
🧔 एल्विन गोल्डनर: प्रतिवर्त समाजशास्त्र
मुख्य विचार: प्रतिवर्त समाजशास्त्र (Reflexive Sociology)
- ज्ञान कभी भी जानने वाले (शोधकर्ता) से पूरी तरह अलग नहीं हो सकता। 🔗
- समाजशास्त्र जिस माहौल में पनपता है (चाहे वह राजनीतिक 🏛️ हो या आर्थिक 💰), उसका असर उस पर ज़रूर पड़ता है।
- शोधकर्ता की मौजूदगी ही सच्चाई को थोड़ा बदल देती है। जिस चीज को हम निष्पक्ष (Objective) समझते हैं, वह अक्सर शोधकर्ता के अपने मूल्यों और विचारों पर टिका होता है।
सूचना 🆚 जागरूकता:
- प्रत्यक्षवाद (Positivism): ज्ञान को महज़ जानकारी (Information) ℹ️ मानता है, जिसका मकसद शायद दुनिया पर नियंत्रण 🕹️ बढ़ाना हो।
- गोल्डनर का ज़ोर: जागरूकता (Awareness) 💡 पर था।
- प्रतिवर्त समाजशास्त्र: दुनिया में अपनी जगह को समझना, अपने अनुभवों को समझना।
- यह जानने वाले और जानी जाने वाली चीज़ के बीच की दीवार 🧱 को गिराने की कोशिश है।
- इसके लिए खुद को जानना, अपनी सीमाओं और प्रभावों को समझना बहुत ज़रूरी है।
- यह सिर्फ बाहरी दुनिया 🌍 को जानना नहीं, बल्कि अपने जानने के तरीके 🧠 को भी जानना है।
निष्कर्ष (गोल्डनर): ज्ञान और ज्ञाता के रिश्ते पर सवाल उठाया।
🗣️ हैरोल्ड गारफिंकल: एथनोमेथोडोलॉजी और रोजमर्रा की प्रतिवर्तता
मुख्य विचार: सामाजिक सच्चाई तो हम रोजमर्रा की बातचीत 💬 में खुद ही बनाते हैं।
- एथनोमेथोडोलॉजी (Ethnomethodology):
- गारफिंकल का नज़रिया अनोखा ✨ था।
- वह मानते थे कि समाज कोई पहले से बनी-बनाई चीज़ 🏛️ नहीं है, बल्कि लोग अपनी रोज़ की बातचीत से, अपने तौर-तरीकों से इसे लगातार बनाते रहते हैं 🛠️।
- सांस्कृतिक मूर्ख (Cultural Dope) की आलोचना:
- समाजशास्त्र की इस बात के लिए आलोचना की कि वह इंसान को एक "सांस्कृतिक मूर्ख" 🤡 की तरह देखता है (कोई ऐसा जो बस आँख मूँदकर नियमों का पालन करता है)। गारफिंकल कहते थे ऐसा नहीं है।
आलेखीय पद्धति (Documentary Method) और प्रतिवर्तता:
- गारफिंकल के लिए: प्रतिवर्तता इसी में है कि हम दुनिया 🌍 को कैसे समझते हैं।
- आलेखीय पद्धति: हम किसी स्थिति के कुछ संकेतों 👀 को देखते हैं और उनके आधार पर उसके पीछे छिपे एक बड़े पैटर्न या मतलब का अंदाज़ा लगा लेते हैं।
- उदाहरण: किसी के हाव-भाव 🎭 देखकर उसके मूड का अंदाज़ा लगाना। वो हाव-भाव एक तरह के दस्तावेज़ 📜 हो गए और मूड वह छुपी हुई हकीकत।
- यह दोनों चीजें एक दूसरे पर निर्भर करती हैं, एक दूसरे को समझने में मदद करती हैं।
- हमारी बातें और विवरण ही उस माहौल को बनाते हैं जिसे वह बयान कर रहे होते हैं।
- Social life खुद ही reflexive है। हम सब अनजाने में ही अपनी सामाजिक दुनिया को बनाते और समझते रहते हैं।
🧐 पियरे बोर्दियू: फील्ड, कैपिटल और हैबिटस
मुख्य विचार: समाजशास्त्रियों को अपनी सामाजिक स्थिति को लेकर सचेत 🧠 रहना चाहिए।
- बोर्दियू का प्रतिवर्त समाजशास्त्र एक कदम और आगे 🚶 जाता है।
- वह कहते हैं कि सिर्फ सचेत होना काफी नहीं है, हमें गहराई से समझना होगा कि समाज में हमारी जगह कहाँ है और इसका हमारे काम पर क्या असर पड़ रहा है।
- वह वस्तुनिष्ठता (Objectivism) और व्यक्तिनिष्ठता (Subjectivism) के द्वंद्व से पार पाने की कोशिश करते हैं।
मुख्य अवधारणाएँ:
- फील्ड (Field) 🏞️:
- समाज एक खेल का मैदान 🏟️ है।
- कैपिटल (Capital) 💰🎭🧠:
- इस मैदान में अलग-अलग तरह के खिलाड़ी 🧑🤝🧑 हैं।
- इन खिलाड़ियों के पास अलग-अलग तरह के संसाधन या ताकत होती है।
- आर्थिक कैपिटल (Economic Capital): पैसा 💵
- सांस्कृतिक कैपिटल (Cultural Capital): ज्ञान 📚
- सामाजिक कैपिटल (Social Capital): सोशल नेटवर्क 🌐
- हैबिटस (Habitus) 🚶♀️🚶♂️:
- हर खिलाड़ी का खेलने का अपना एक तरीका होता है, अपनी आदतें, अपना अंदाज़।
- यह उसके पिछले अनुभवों से बनता है।
प्रतिवर्तता का अर्थ (बोर्दियू के लिए):
- समाजशास्त्री भी इसी खेल का हिस्सा है, वह बाहर नहीं खड़ा है।
- उसे समझना होगा कि उसका अपना फील्ड, उसका कैपिटल, और उसका हैबिटस उसके रिसर्च को कैसे प्रभावित कर रहे हैं।
- यह एक तरह की बौद्धिक सतर्कता (Intellectual Vigilance) 🧐 है।
🔄 निष्कर्ष: प्रतिवर्तता का महत्व
तीनों विचारकों (गोल्डनर, गारफिंकल, बोर्दियू) का साझा सूत्र:
- अलग-अलग तरीकों से एक ही बात पर ज़ोर दे रहे हैं: कि सामाजिक सच्चाई को समझने में शोधकर्ता की अपनी भूमिका, उसकी पृष्ठभूमि, उसका नज़रिया बहुत अहम है।
- इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। ज्ञान हमेशा जानने वाले से जुड़ा है।
- प्रतिवर्तता हमें यही याद दिलाती है:
- ज्ञान सिर्फ बाहर की दुनिया के बारे में जानकारी जमा करना नहीं है।
- यह समझना भी है कि हम उस जानकारी को कैसे देखते और समझते हैं।
- यह खुद पर सोचने, अपने पूर्वाग्रहों और नज़रिए को जाँचने के लिए उकसाती है – न सिर्फ शोधकर्ताओं के लिए, बल्कि हम सबके लिए जो सामाजिक दुनिया को बेहतर ढंग से समझना चाहते हैं।
🤔 अंतिम प्रश्न
अगर सामाजिक हकीकत के बारे में हमारा ज्ञान हमेशा हमारी अपनी स्थिति और व्याख्या से रंगा होता है, तो क्या कभी पूरी तरह वस्तुनिष्ठ या निष्पक्ष सच्चाई तक पहुँचना मुमकिन है? 🤔 या फिर ज्ञान हमेशा आत्मचिंतन और व्याख्या की एक न खत्म होने वाली प्रक्रिया ही है? 🔄
इस सवाल पर छोड़ते हैं!